GAZLEN
तू जो चाहे तो फ़क़त लफ़्ज़ कहानी हो जाय
वरना इसरार भी एक तल्ख़ बयानी हो जाय .
हो बुरा वक़्त तो दरिया कि रवानी खो जाय
वक़्त अच्छा हो तो चट्टान भी पानी हो जाय .
नींद उसकी चुरा ले जाती है एक आहट भी
जिसका घर कच्चा हो और बेटी सयानी हो जाय .
कल से चोखे पर ही गुजरेगी पता है हमको
आज पैसा है चलो दाल मखानी हो जाय .
जब हरेक मर्ज़ की इकलौती दवा है पूँजी
'इंडिया' नाम तेरा क्यों न ' अडानी ' हो जाय .
तू जो चाहे तो फ़क़त लफ़्ज़ कहानी हो जाय
वरना इसरार भी एक तल्ख़ बयानी हो जाय .
हो बुरा वक़्त तो दरिया कि रवानी खो जाय
वक़्त अच्छा हो तो चट्टान भी पानी हो जाय .
नींद उसकी चुरा ले जाती है एक आहट भी
जिसका घर कच्चा हो और बेटी सयानी हो जाय .
कल से चोखे पर ही गुजरेगी पता है हमको
आज पैसा है चलो दाल मखानी हो जाय .
जब हरेक मर्ज़ की इकलौती दवा है पूँजी
'इंडिया' नाम तेरा क्यों न ' अडानी ' हो जाय .
(2)
तू थी उदास मुझे भी उदास होना पड़ा
नदी तेरे लिये हि मुझको प्यास होना पड़ा .
ललक तो थी मगर हिम्मत न थी कि देखूँ तुझे
कि जिस ने देख लिया सूरदास होना पड़ा .
हया ढंकी रहे इस मुल्क की इसी खातिर
फ़कीर गाँधी को आधा लिबास होना पड़ा .
चला जो दौर मोहब्बत का , पीने-पाने का
किसी को जाम किसी को गिलास होना पड़ा .
नदी तेरे लिये हि मुझको प्यास होना पड़ा .
ललक तो थी मगर हिम्मत न थी कि देखूँ तुझे
कि जिस ने देख लिया सूरदास होना पड़ा .
हया ढंकी रहे इस मुल्क की इसी खातिर
फ़कीर गाँधी को आधा लिबास होना पड़ा .
चला जो दौर मोहब्बत का , पीने-पाने का
किसी को जाम किसी को गिलास होना पड़ा .
(3)
कभी दुश्वारियों , बिमारियो का हल रहा है घर
न जाने कौन से नक्षत्र में अब पल रहा है घर .
ज़माने की ज़रूरत के मुताबिक ढल रहा है घर
समय की जेब में सपनों के जैसा पल रहा है घर .
धुएं की तरहा से ऐंठे हवा में उड़ रहे लोगो
ज़रा उस वक़्त की सोचो कि जब पैदल रहा है घर .
ख़ुशी में मुझ को बातूनी बनाया है इसी घर ने
मेरी ग़मगीन ख़ामोशी का भी सम्बल रहा है घर .
कोई भी घर वही होता है जो होते हैं घरवाले
कभी पर्वत कभी दरिया कभी जंगल रहा है घर .
कोई घर में ही बेघर की तरह रह पाएगा कैसे
अभी तक तो गुज़ारा कर लिया अब खल रहा है घर .
कि जिस परिवार को पावों कि जकड़न मानता है अब
उसी परिवार के पीछे कभी पागल रहा है घर .
न जाने कौन से नक्षत्र में अब पल रहा है घर .
ज़माने की ज़रूरत के मुताबिक ढल रहा है घर
समय की जेब में सपनों के जैसा पल रहा है घर .
धुएं की तरहा से ऐंठे हवा में उड़ रहे लोगो
ज़रा उस वक़्त की सोचो कि जब पैदल रहा है घर .
ख़ुशी में मुझ को बातूनी बनाया है इसी घर ने
मेरी ग़मगीन ख़ामोशी का भी सम्बल रहा है घर .
कोई भी घर वही होता है जो होते हैं घरवाले
कभी पर्वत कभी दरिया कभी जंगल रहा है घर .
कोई घर में ही बेघर की तरह रह पाएगा कैसे
अभी तक तो गुज़ारा कर लिया अब खल रहा है घर .
कि जिस परिवार को पावों कि जकड़न मानता है अब
उसी परिवार के पीछे कभी पागल रहा है घर .
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