Friday, September 26, 2014

GAZLEN

                   GAZLEN

तू जो चाहे तो फ़क़त लफ़्‍ज़ कहानी हो जाय
वरना इसरार भी एक तल्ख़ बयानी हो जाय .
हो बुरा वक़्त तो दरिया कि रवानी खो जाय
वक़्त अच्छा हो तो चट्टान भी पानी हो जाय .
नींद उसकी चुरा ले जाती है एक आहट भी
जिसका घर कच्चा हो और बेटी सयानी हो जाय .
कल से चोखे पर ही गुजरेगी पता है हमको
आज पैसा है चलो दाल मखानी हो जाय .
जब हरेक मर्ज़ की इकलौती दवा है पूँजी
'इंडिया' नाम तेरा क्यों न ' अडानी ' हो जाय .



                   (2)

तू थी उदास मुझे भी उदास होना पड़ा
नदी तेरे लिये हि मुझको प्यास होना पड़ा .
ललक तो थी मगर हिम्मत न थी कि देखूँ तुझे
कि जिस ने देख लिया सूरदास होना पड़ा .
हया ढंकी रहे इस मुल्क की इसी खातिर
फ़कीर गाँधी को आधा लिबास होना पड़ा .
चला जो दौर मोहब्बत का , पीने-पाने का
किसी को जाम किसी को गिलास होना पड़ा .

                 (3) 
     
कभी दुश्वारियों , बिमारियो का हल रहा है घर
न जाने कौन से नक्षत्र में अब पल रहा है घर .
ज़माने की ज़रूरत के मुताबिक ढल रहा है घर
समय की जेब में सपनों के जैसा पल रहा है घर .
धुएं की तरहा से ऐंठे हवा में उड़ रहे लोगो
ज़रा उस वक़्त की सोचो कि जब पैदल रहा है घर .
ख़ुशी में मुझ को बातूनी बनाया है इसी घर ने
मेरी ग़मगीन ख़ामोशी का भी सम्बल रहा है घर .
कोई भी घर वही होता है जो होते हैं घरवाले
कभी पर्वत कभी दरिया कभी जंगल रहा है घर .
कोई घर में ही बेघर की तरह रह पाएगा कैसे
अभी तक तो गुज़ारा कर लिया अब खल रहा है घर .
कि जिस परिवार को पावों कि जकड़न मानता है अब
उसी परिवार के पीछे कभी पागल रहा है घर .

               00000

Sunday, March 23, 2014

कविता 

भूख 

बच्चा था तो परेशान  रहती थी  माँ 
कुछ खाता  नहीं 

दुलरातीं     फुसलातीं    जबरिया खिलातीं 
एक कौर  कौआ का 
एक कौर गइया का 
एक कौर सुग्गा का 
एक कौर मेरे मन्नू का 

डाक्टर  पीर पड़ोसन सबसे गा आतीं 
कुछ खाता  नहीं   मेरा   मन्नू 

बड़ा हुआ तो रोटियां कम पड़ने लगीं --
जब देखो मुह चलता ही रहता --
मिठाई नमकीन बिस्कुट कहाँ चोरवा दिए जाएँ 
कि मेहमानों  के आने पर मुँह न ताकना पड़े 
कम का न  काज का नौ मन अनाज का 

उमर ढली 
कम होने लगी खुराक 
बढ़ने लगी भूख माँ की 
दो की जगह एक फिर आधी फिर.…
भूख ही नहीं 
लस्त होता शरीर   पस्त होती हिम्मत   अस्त होती भूख 
ग्रस्त होती सम्भावना 
चलेंगी नहीं शायद 

बचपन से लेके बुढ़ापे तक भूख केवल भूख 
सुबह करो शाम का रोना 
जीवन क्या बस भूख का होना 
चिंतनीय    शास्वत भूख   
गोद से लेके चिता तक सुलगती रही हर  जून भूख। 

 




Saturday, March 1, 2014

कविता

माँ  की घर वापसी 

देवेन्द्र आर्य 


माँ  को उठा लाया  मैं उस घर से 
 जहाँ वे कूड़े की तरह छिपाई जाती थीं किसी के आने पर 

चौरासी का  कोई भी कूड़ा ही होता है 
घर-बाहर ढोया  ही जाता    खीझा जाता    भुनभुनाया जाता 
है  लाचार  बात सुनने से 
कभी कभी झटक-पटक भी 
लेकिन बस मन ही मन    ऊपर से  शांत वचन 

माँ भी चौरासी की हैं 
कैलेण्डर की तरह घर के एक कोने  टंगी 
अटकी हुई साँस सी थरथराती 
न गोर्की की न महाश्वेता  की 
चौरासी की माँ      चौरासीवें  की नहीं 

उठा लाया उस घर का कबाड़ मैं 
साफ- सफाई      दवा- दारू    खान-पियन 
अपना कमर दर्द  याद  ही नहीं रहा 
दर्द वही जिसको  तरजीह  दी  जाए 
दुल्हन वही जो पिया मन भाए 
भा  गयी  माँ  की  पीड़ा  हमको। 

घिसकुरियां  मारती  माँ 
धीरे  धीरे वाकर  पर रेंगने  लगीं 
दूध भी पचने लगा      भूख भी लगने लगी 
कब्ज भी नहीं रहा 
खुद को भी कोसती नहीं अब 
दर्द बेचारा परीशाँ  है कहाँ से उट्ठे 
दवाओं के अलावां कौन सी दवा दे दी तुमने आशा !

चिड़ियाँ भी माँ से  ज्यादा चुगती होंगी 
नाइका बिहारी की चौरासीवें में आके 
तीन की जगह पांच  बेर  खाती होंगी 
क्या सब की माँ चौरासी में आके 
अटक-अटक    भटक-भटक लोकगीत गाती होंगी 
चश्मे से टुकुर टुकुर अखबार पढ  पाती होंगी 


माँ की घर वापसी हुई 

अपना बेटा  सबसे प्यारा होता माँ को 
और बेटे  को उसकी माँ 
और घर को उसका मलिकार 

माँ का मिलना 
सास का मिलना      दादी का मिलना 
कैसा लगता हरे हरे जीवन से 
पियराये जीवन का मिलना 
घर ने अगले बीस साल के बाद का घर देखा 
हमको भी जाना है उसी राह    जीवन की उसी राह 
धर्म जिसे ' बहुधा वदन्ति '


लौट आई  माँ अपने घर 
मरघट तक जाने को 
जीवन की संध्या में लौटी हैं माँ अपने घर 
भरने अकेलापन घर का 
कुछ न कर पाने की कुँठा  से उबारने 
मौका है      माँ का एहसान  है 
सेवा ही जीवन का ज्ञान है 

एक अचलस्त  निगरानी 
सारे  घर में माँ की गूँज रही है खमोश  वानी 

सोच के सिहरन हो जाती है 
सुननी पड़ेगी जब माँ की अनुपस्थित आवाज़ 
देखना पड़ेगा जब सूना सूना कोना 
जहाँ लगा करता था माँ का बिस्तर 
टेरती  जहाँ  से थीं ---ए  दुल्हिन !     ए  बेटा !



-देवेन्द्र आर्य 
ए -127
आवास विकास कॉलोनी ,शाहपुर ,
गोरखपुर। पिन -273006
मोबाइल - 9794840990
devendrakumar.arya1@gmail.com

गज़ल

शुरू तो हुई थीं विरासत कि बातें
मगर हो रहीं हैं सियासत कि  बातें।
शराफत कि बातें , नफासत कि बातें
लुटेरों के मुह से हिफाजत कि बातें।
मोहल्ला कमेटी के हल्ले के पीछे
सुनीं जा रहीं हैं रियासत कि बातें।
मुझे भी मजा है , कमाई उसे भी
समझता है हाथी महावत कि बातें।
है चीटी के ऊपर पहाड़ों का बोझा
रुकेंगी कहाँ तक बगावत कि बातें।
ये खुश्बू को कैसे पता चल गयी हैं
हमारे तुम्हारे मोहब्बत कि बातें।
मुसलमानों के वोट की फिक्र  हो  तो
उन्हें रास  आती हैं दहशत कि बातें।
कहीं  गहरे बैठी हैं  दरिआ  के मन में
उजड़ते चले जाते पर्वत कि बातें।
है मुमकिन कि मय  छूट जाये लबों से
कहाँ छूट पाती हैं आदत कि बातें।
ये कैसा समय है कि कुदरत के घर में
पहुच ही नहीं पातीं कुदरत कि बातें।
मुकम्मल हुआ होता ईमान  तेरा
अमल में जो आ जातीं सुन्नत कि बातें।


गज़ल

शुरू तो हुई थीं विरासत कि बातें
मगर हो रहीं हैं सियासत कि  बातें।
शराफत कि बातें , नफासत कि बातें
लुटेरों के मुह से हिफाजत कि बातें।
मोहल्ला कमेटी के हल्ले के पीछे
सुनीं जा रहीं हैं रियासत कि बातें।
मुझे भी मजा है , कमाई उसे भी
समझता है हाथी महावत कि बातें।
है चीटी के ऊपर पहाड़ों का बोझा
रुकेंगी कहाँ तक बगावत कि बातें।
ये खुश्बू को कैसे पता चल गयी हैं
हमारे तुम्हारे मोहब्बत कि बातें।
मुसलमानों के वोट की फिक्र  हो  तो
उन्हें रास  आती हैं दहशत कि बातें।
कहीं  गहरे बैठी हैं  दरिआ  के मन में
उजड़ते चले जाते पर्वत कि बातें।
है मुमकिन कि मय  छूट जाये लबों से
कहाँ छूट पाती हैं आदत कि बातें।
ये कैसा समय है कि कुदरत के घर में
पहुच ही नहीं पातीं कुदरत कि बातें।
मुकम्मल हुआ होता ईमान  तेरा
अमल में जो आ जातीं सुन्नत कि बातें।

गज़ल

शुरू तो हुई थीं विरासत कि बातें
मगर हो रहीं हैं सियासत कि  बातें।
शराफत कि बातें , नफासत कि बातें
लुटेरों के मुह से हिफाजत कि बातें।
मोहल्ला कमेटी के हल्ले के पीछे
सुनीं जा रहीं हैं रियासत कि बातें।
मुझे भी मजा है , कमाई उसे भी
समझता है हाथी महावत कि बातें।
है चीटी के ऊपर पहाड़ों का बोझा
रुकेंगी कहाँ तक बगावत कि बातें।
ये खुश्बू को कैसे पता चल गयी हैं
हमारे तुम्हारे मोहब्बत कि बातें।
मुसलमानों के वोट की फिक्र  हो  तो
उन्हें रास  आती हैं दहशत कि बातें।
कहीं  गहरे बैठी हैं  दरिआ  के मन में
उजड़ते चले जाते पर्वत कि बातें।
है मुमकिन कि मय  छूट जाये लबों से
कहाँ छूट पाती हैं आदत कि बातें।
ये कैसा समय है कि कुदरत के घर में
पहुच ही नहीं पातीं कुदरत कि बातें।
मुकम्मल हुआ होता ईमान  तेरा
अमल में जो आ जातीं सुन्नत कि बातें।




Wednesday, February 26, 2014

गज़ल

शुरू तो हुई थीं विरासत कि बातें
मगर हो रहीं हैं सियासत कि  बातें।
शराफत कि बातें , नफासत कि बातें
लुटेरों के मुह से हिफाजत कि बातें।
मोहल्ला कमेटी के हल्ले के पीछे
सुनीं जा रहीं हैं रियासत कि बातें।
मुझे भी मजा है , कमाई उसे भी
समझता है हाथी महावत कि बातें।
है चीटी के ऊपर पहाड़ों का बोझा
रुकेंगी कहाँ तक बगावत कि बातें।
ये खुश्बू को कैसे पता चल गयी हैं
हमारे तुम्हारे मोहब्बत कि बातें।
मुसलमानों के वोट की फिक्र  हो  तो
उन्हें रास  आती हैं दहशत कि बातें।
कहीं  गहरे बैठी हैं  दरिआ  के मन में
उजड़ते चले जाते पर्वत कि बातें।
है मुमकिन कि मय  छूट जाये लबों से
कहाँ छूट पाती हैं आदत कि बातें।
ये कैसा समय है कि कुदरत के घर में
पहुच ही नहीं पातीं कुदरत कि बातें।
मुकम्मल हुआ होता ईमान  तेरा
अमल में जो आ जातीं सुन्नत कि बातें।








  नीति , नीयत और नाक का प्रश्न   

बुजुर्गों के साथ अक्सर यह दिक्कत आती है कि इन्द्रिया शिथिल पड जाने के कारण वे वही सुन पाते हैं जो उन्हें  दूसरे सुना देते हैं .वही देख पाते हैं जो दूसरे उन्हें दिखा देते हैं .उम्र बढ़ जाने पर अपना कान अपना कान नहीं रहता ,  अपनी आँख अपनी आँख नहीं रहती .ऐसे में अपनी जबान अपनी  जबान कैसे रह सकती है .राजनैतिक परिपक्वताविहीन व्यक्ति सदा दूसरों के हाथ में डमरू की तरह होता है  .जो चाहे बजाले, मजमा लगा ले .राहुल, अरविंद ,किरण के बाद अब ममता अन्ना डमरू बजा रहीं हैं . उन्हें शायद नहीं मालूम  कि अन्ना बिना मिलावट सिर्फ अनशन कर सकते हैं .उनकी बातों, विचारों ,और उनकी आस्था में पानी तलाशना चाँद पर भरोसा करना  है .
इमान्दारी अच्छी चीज है परन्तु राजनीति में सिर्फ इमान्दारी ' बौउक' होती है .और बौउक किस्म कि राजनैतिक खतरनाक .आम अदमी की इसी बौउक इमान्दारी का  शोषन खाई -अघाई पार्टी करती रही हैं .कुछ परिवारों के पास कई  तरह के तीर और कई तरह के निशानें हैं .
साम्प्रदायिकता का तीर चलना है तो फलां पार्टी .गैर-साम्प्रदायिकता का तीर चलना है तो फलां पार्टी .दलित तीर के लिये फलां और समाजवादी तीर के लिये फलां .धनुष एक तीर अनेक .तीर और निशाने से ज्यादा महत्वपूर्ण धनुषधारी की पहचान बेनकाब करना है .बौक-ईमानदार अन्ना इसे समझना नहीं चाहते .पत्ते खुलते जा रहे हैं और अन्ना भी .कलतक वाया किरण बेदी ,अन्ना भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल का भाजपाई अजेंडा थे ,अब वे वाया संतोष भारतीय ईमानदारी का ममटाई अजेंडा हैं .डील अन्ना की थी कि किरण की ,कि अब संतोष की है ,पता नहीं .जो आरोप अरविंद के राजनैतिक विरोधी भी नहीं लगा सके , वह अन्ना ने लगा दिया--अरविंद लालची हैं .अगला आरोप शायद देशद्रोह का लगेगा .संविधान-द्रोही तो वे हैं ही .कौन सा संविधान, किसका संविधान ,कभी यह प्रश्‍न महत्वपूर्ण होता था ,अब रुपये में सोलह आने का है .आउटडेटेड.पहले कभी राजनीति में आने , पार्टियों से जुड़ने  यानी राजनीति करने से अन्न-किरण ऐसे बिदकते थे जैसे लाल कपड़ा देख के सांढ़ बिदकता है .जब सामाजिक आंदोलन को राजनातिक धार देने का वक़्त-विचार आया तो अन्ना -किरण बिदक गये .उनकी राजनैतिक-सुचिता का एक मात्रा माप दंड , गैर-राजनैतिक रहना था .राजनीति सरकारी कर्मचारियों के लिये जिस तरह वर्जित है , वासे ही अन्ना के लिये थी, बावजूद इसके कि वे सरकारी नहीं हैं .यह और बात है कि सरकारी लोकपाल का उन्हों ने समर्थन किया। आप कि घोषणा होते ही अन्ना-मंदिर से अरविंद कुजात की तरह निकल दिये गये .तब साथ थीं किरण जो आज भाजपाई हो गईं . अन्ना गरियाते रहे ,परंतु जब आप को दिल्ली मे जनता ने २८ सीटें दे दीन तो वही अन्ना पूरी बेशर्मी से बोले--मई अरविंद के साथ घूमता तो उन्हें पूर्णा बहुमत मिलता .बधाई भी दी.मतलब? मतलब कुछ नहीं .कल जिस चश्‍में से देख रहे थे वा एंकर के सामने हड़बड़ी में गिर के टूट गया .तड़ाक से किसे और ने अपना( अपना, आप से बनता है) चश्मा उन्हें लगा दिया .दोष न चश्मे का न नज़र का डॉश है दृश्य का .यानी वस्तुनिष्ठता  वस्तु में है ,प्रेक्षक में नहीं .है .नैतिक राजनीति से कम महत्वपूर्ण राजनैतिक नैतिकता नहीं होती इसे अन्ना समझ नहीं पा रहे हैं.अरविंद के पास कोई विज़न नहीं तो ममता के पास कौन सा विज़न है ?मगर उन्हें सूती साड़ी और हवाई चप्पल भा गई .'कितनी नावों पर कितनी बार का प्रश्‍न अन्ना के लिये बेकार है .सवाल नीति , नीयत और नाक का है.अन्ना की नीति--सामाजिक आंदोलन और अनशन. अन्ना की नीयत--जनता की सेवा और भ्रष्टाचार से मुक्ति .मगर अन्ना की नाक ? नाक बेचारी बीच में आ रही .कहाँ बचायें ,कहाँ कटाएँ, कहाँ घुसायें ?थोड़ी चर्चा आप की भी कर ली जाय .शरीर मिट्टी का बना है और अंत में मिट्टी में ही मिल जाता है .आप का गठन सोशल मीडिया और सड़क से हुआ है  तो कहीं मीडिया और सड़क ही उसे खा न ले .आप कि चुनौती न मोदी हैं न राहुल .न अंबानी. न माया-मुलायम-ममता .आप की चुनौती सिर्फ आप है .आम आदमी पार्टी की चुनौती अन्ना नहीं , आम आदमी है .आप को देश व्यापी आधार दे पाना  अरविंद के बस में नहीं दिखता .जो आप के नाम पर सुर्खरू हो रहे हैं उनका सच टिकट बटवारे को लेकर सामने आ रहाहै .रक्तहीन क्रांति का केजरीवाली सच .प्रति मिनट आनेवाले चंदे की राशि से नहीं , आपकी विश्वसनीयता आप के कामों से नापी जायगी .' थोडा  लिखना बहुत समझना ' इस पर आप को कब भरोसा होगा .सादगी दिखानी नहीं पड़ती ' जनता देख लेती है। ममता की सादगी छिप नहीं पाई .यही हाल ईमानदारी का है .आप को तो जनता पर अगाध विश्वास है ,फिर इतना बड़बोलापन ? इतनी हड़बड़ी ,इतनी हाय-तोबा ?अपने उन्चास दिनो के करतब  को बताने के लिये झूट का सहारा लेने की क्या जरूरत ?विशिष्ट अर्थों में 'राजनैतिक चेतना' का अभाव अगर अरविंद में है तो ममता में ? खासतौर पर तब जब 'राजनैतिक चेतना' ,'सत्ता-चेतना' में विघटित कर दी गई हो .अरविंद यदि फलां किताब से या फलां-फलां सिद्दांतो से नहीं बल्कि सीधे जनता से सीखना चाहते हैं तो इस में बुराई क्या है सिद्धांत रटे लोगों का साठसाला रिजल्टकार्ड जनता दीख चुकी है .सड़क की आवाज संसद में ले जाने के पहले वे संसद को सड़क पर ले आना चाहते है तो यह संसदीय-प्रक्रियावादी पार्टियों के गले नहीं उतरता है.उनके भी नहीं जिनकी पैदाइश संसद को सूअरबाड़ा समझने के साथ हुई थी .जनता की पाठशाला में न जाने का खामियाजा सभी पार्टियाँ भोग रही हैं ..कोई कह दे रहा है , कोई चुप है  .यदि यही विदेश नीति है कि बांगलादेशी हिन्दू ग्राह्य है और बांगलादेशी मुसलमान घुसपैठी  तो ऐसी विदेश नीति से तोबा .यदि धरा ३७० केवल सत्ता पाने का झुनझुना है तो ऐसी  संविधान निष्टा  से तोबा .यदि दिल्ली से चला १०० पैसा ब्लाक तक पहुचते पहुचते केवल २० पैसा रह जाता है तो ऐसी अर्थनीति से तोबा .यदि विकास का मतलब देश नहीं दो चार कुनबों का विकास है तो ऐसे विकास से तोबा . ऐसा कोइ ब्लूप्रिंट हमें नहीं चाहिए .परन्तु एक बात आज तक अनुत्तरित है .यदि दिल्ली की सर्कार दो चार दिन और च जाती तो क्या नुकसान देश का हो गया होता .संवैधानिक प्रक्रियाओं  का पालन यदि इतना ही खतरनाक था तो उसे विधानसभा में बेनकाब क्यों नहीं कियागया .वैसे ही जैसे अम्बानी मामले में दोनों पार्टियों को बेनकाब किया गया था . 
अन्ना ने अरविन्द को लालची क़रार दिया है I लालच सिर्फ पद पैसा या प्रतिष्ठा का ही नहीं होता है I कहीं अवचेतन में सम्मानित होते रहने ,किये जाने और , सम्मानित माने जाने की आकांक्षा भी लालच का रूप धारण कर लेती है I वही पद्म पुरस्कारों वाला लालच I हमें पता भी नहीं चलता कि हम लालची हैं और हम किन्ही हाथों का खिलौना बन जाते है I साहित्यिक पुरस्कारों से इसे जोड़ कर आसानी से समझा जा सकता है I अन्ना लालची नहीं हैं , परन्तु क्या अन्ना वास्तव में लालची नहीं हैं ? बावजूद इसके कि देश का अगला राष्ट्रपति अभी काल के गर्भ में है I अगला भारत रत्न भी I

Thursday, September 9, 2010

गज़ल - 9

ज़िन्दगी क़ुदरत का है अलाहुनर
झुर्रियों से झुर्रियों तक का  सफ़र .
मौत के भूखंड पर निर्मित भवन
रह रहे अनुबंध पर हम ,लीज पर.
अब तो केवल 'हाए' का है आसरा
हो गई आवाज निर्बल इस कदर .
है सियासत से सियासत लापता
जैसे ख़बरों में नहीं होती ख़बर .
आदिवासी, नक्सली और संविधान
यूँ समझ लो इस  भंवर से उस भंवर .
जबरा  मारे और  रोवन भी न दे 
दावं पर है ज़िन्दगी , काहे  का डर .
शाम को घर आके हिंदी ख़ुश हुई
कोट -टाई अलगनी पर टांग कर .